ज्योति जला
ज्योति जला निज प्राण की
बाती गढ़ बलिदान की
आओ हम सब चले उतारें
माँ की पावन आरती।
चलें उतारें आरती॥
यह वसुन्धरा माँ जिसकी
गोद में हमने जन्म लिया
खाकर जिसका अन्न-अमृत सम
निर्मल शीतल नीर पिया
श्वासें भरीं समीर में
जिसका रक्त शरीर में
आज उसी की व्याकुल होकर
ममता हमें पुकारती ॥१॥
जिसका मणिमय मुकुट सजाती
स्वर्णमयी कंचन जंघा
जिसके वक्षस्थल से बहती
पावनतम यमुना-गंगा
संध्या रचे महावरी गाये गीत विभावरी
अरुण करों से उषा सलोनी
जिसकी माँग संवारती ॥२॥
जिस धरती के अभिनन्दन को
कोटि-कोटि जन साथ बढे
जिसके चरणो के वंदन को
कोटि-कोटि तन-माथ चढे
लजा न जिसके क्षीर को
तृण-सा तजा शरीर को
अमर शहिदों की यशगाथा
जिसका स्नेह दुलार्ती ॥३॥
देखो इस धरा जननी पर
संकट के घन छाये हैं
घनीभूत होकर सीमाओं पर
फिर से घिर आये हैं
शपथ तुम्हें अनुराग की
लुटते हुए सुहाग की
पल भर की देरी न तनिक हो
माता खड़ी निहारती॥४॥
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