साधना का दीप ले
साधना का दीप ले निष्कम्प हाथों
बढ रहे निज ध्येय पथ साधक निरंतर ॥ध्रु॥
क्षूद्र भावोंको मिटाने भेद के तम को हटाने
नित्य शाखा संस्कारों को जगा
राष्ट्रभक्ति लीन हो साधक निरंतर॥१॥
को ई पूजा की विधी हो विविध पंथोंकी निधी हो
धर्म का आधार व्यापक है घना
प्रेम वृष्टी कर रहे साधक निरंतर॥२॥
को ई भूखा ना रहेगा कष्ट को ई ना सहेगा
परमवैभव से भरा यह देश हो
बस इसी धुन में लगे साधक निरंतर ॥३॥
मातृभूमी अखण्ड होगी कण्टकोंसे शून्य होगी
संघटित सामर्थ्य की कर गर्जना
जगत को ललकारते साधक निरंतर ॥४॥
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