Sunday, August 25, 2019

ओ विजय के पर्व पौरुष का प्रखर सूरज उगा दे

ओ विजय के पर्व

ओ विजय के पर्व पौरुष का
प्रखर सूरज उगा दे
पार्थ के गांडीव धारि हाथ का
कम्पन छुडा दे ॥धृ॥
पाव मे स्वातंत्र्य के क्युं
हिचकिचाहट आ समायी
क्युं नवल तारुण्य मे
निर्वीर्यता देती दिखायी ॥१॥
शत्रु ओं की शक्ति को
हम हीन हो कर आँकते है
आँख के आगे भला क्युं
भूत भय के नाचते है
आज रग रग में लहू का
खौलता तूफान ला दे ॥२॥
पीठ पर अरिवृन्द चढते
आ रहे है आज हसते
ओ ब्रुहद्रथ की अहिंसा जा
तुझे अन्तिम नमस्ते ॥३॥
गिरि अरावलि की शिला ओ
अब हिमालय पर चलो तुम
आज हिम के वक्ष पर
चित्तौड के जौहर जलो तुम
चीन की प्राचीर पर तो
टाप चेतक की अडा दे ॥ ४॥

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